चौथा अध्याय

 

 ग्नि, प्रकाशपूर्ण संकल्प

 

 ऋग्वेद, मण्डल 1, सूक्त 77

 

कथा दाशेमाग्नये कास्मै देवजुष्टोच्यते भामिने गी: ।

यो मर्त्येष्यमृत ऋताया होता यजिष्ठ इत् कृणोति देवान् ।।1 ।।

 

(कथा अग्नये दाशेम) कैसे हम अग्निको हवि दें ? (का देवजुष्टा गी:) कौन-सा देव-स्वीकृत शब्द (भामिने अस्मै) देदीप्यमान ज्वालाके अधिपति इस [अग्नि] के लिये (उच्चते) बोला जाता है ? (य:) जो (मर्त्येषु अमृत:) मर्त्योमें अमर, (ऋतावा) सत्यसे युक्त, (यजिष्ठ: होता) यज्ञका साधकतम होता हुआ (देवान् कृणोति इत्) देवोंको विरचित कर देता है ।।1|।

 

यो अध्वरेषु शंतम ॠतावा होता तमु नमोभिरा कृणुध्यम् ।

अग्निर्यद् वेर्मर्ताय देवान्त्स चा बोधाति मनसा यजाति ।।2।।

 

(य:) जो अग्नि (अध्वरेषु होता) यज्ञोंमें 'होता' है, (शंतम:) शांतिसे परिपूर्ण है, (ऋतावा) सत्यसे परिपूर्ण है (तम् उ) उसे तुम अवश्य (नमोभि:) अपने समर्पणों द्वारा (आकृणुध्वम्) अपने अंदर रचो (यद् अग्नि:) जब अग्नि (मर्ताय) मर्त्यके लिये (देवान् वे:) देवोंको अभिव्यक्त1 करता है, तब (स बोधाति) वह उनका बोध रखता हैं, और (मनसा यजाति च) मन द्वारा उनका यजन भी करता हैं, उन्हें हवि भी प्रदान करता है ।।2।।

 

स हि क्रतु: स मर्य: स साधुर्मित्रो न भूदद्भुतस्य रथी: ।

त मेधेषु प्रथमं देवयन्तीर्विश उप ब्रुवते दस्यमारी: ।।3।।

 

(हि) क्योंकि (स क्रतु:) वह संकल्प है, (स मर्य:) वह बलरूप है, (स साधु:) वह पूर्णताको सिद्ध करनेवाला है, वह (मित्र: न) मित्रकी तरह (अद्भुतस्य रथी: भूत्) परम सत्ताका रथी हो जाता है । (तं प्रथमं दस्मम्) उस सर्वप्रथमके प्रति, उस परिपूर्ण करनेवालेके प्रति (मेधेषु) समृद्धियुक्त यज्ञोंमें (देवयन्ती: आरी: विशः) देवत्वको चाहनेवाली आर्य प्रजाएँ (उपब्रुवते) शब्द उच्चारित करती हैं ।।3।।

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1 या ''देवान् वे:=देवों के अन्दर प्रविष्ट होता हैं ''

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स नो नृणां नृतमो रिशादा अग्निर्गिरोऽवसा वेतु धीतिम्

तना च ये मघवानः शविष्ठा वाजप्रसूता इषयन्त मन्म ।।4।।

 

(नृणां मृतम:) शक्तियोंमें सबलतम और (रिशादा:) विनाशकोंको हड़प जानेवाला (स: अग्नि:) बह अग्नि (अवसा) अपनी उपस्थितिके द्वारा (गिर:) शब्दोंको और (धीतिम्) उनके विचारको (वेतु) अभि-व्यक्त कर दे,1 (ये च) और वे जो (तना) अपने विस्तारसे (मघ-वान:) ऐश्वर्यके अधिपति तथा (शविष्ठा:) सबसे अघिक बलशाली हैं (वाजप्रसूता: [स्युः] ) अपने ऐश्वर्यको बिखेरनेवाले हो जायाँ, और (मन्म इषयन्त) बिचारको अपनी अन्तःप्रेरणा देवें ।।4।।

 

एवाग्निर्गोतमेभिर्ऋतावा विप्रेभिरस्तोष्ट जातवेदा: ।.

स एषु धुम्नं पीषयत् स वाजं स पुष्टिं याति जोषमा चिकित्वान् ।।5।।

 

(एव) इस प्रकार (ऋतावा अग्नि:) सत्यसे युक्त अग्नि (गोतमेभि:) गोतमों-प्रकाशके स्वामियों2---द्वारा (अस्तोष्ट) स्तुत किया गया है, (जातवेदा:) वह लोकोंको जाननेवाला अग्नि (विप्रेभि:) विप्रों-निर्मल-मनों-द्वारा [स्तुत किया गया है] । (स एषु) वह इन [गोतमों या विप्रों]के अंदर (द्युम्न पीपयत्) प्रकाशकी शक्तिको पोषित करेगा, (स वाजम्) वह समृद्धिको [ पोषित करेगा]; (चिकित्वान् सः)  बोधयुक्त वह [अपने बोधों द्वारा] (पुष्टिं) पुष्टि (जोषुम्) प्राप्त करेगा ।।5।।

 

भाष्य

 

 

गोतम राहूगण इस सूक्तका ऋषि है, सूक्त अग्निकी स्तुतिमें गाया है, अग्नि है दिव्य संकल्प जो विश्वमें कार्य कर रहा है |

 

'अग्नि वैदिक देवोंमें सवसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, सबसे अघिक व्यापक

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1. या ''गिर: धीतिं वेतु=शब्दोंमें तथा विचारमें प्रविष्ट हो जाय ।''

2. बाहरी अर्थ लें तो 'गोतमेमिः'का अर्थ होगा इस सूक्तका द्रष्टा जो गोतम रहूगण

  ॠषि है उसके परिवारके व्यक्तियों द्वारा | परंतु हम निरंतर देखते हैं कि मंत्रोंमें

  जहां ॠषियोंके नाम प्रयुक्त किये गये हैं वहां साथ ही उनका अर्थ बतानेवाले गूढ़

  संकेत मी रख दिये गये हैं । दस संदर्भमें 'गोतमेमि र्ॠतावा, विप्रेमिर्जातवेदाः' इस

  प्रकार शब्दोंको जोड़कर रखनेसे 'गोतम' कौन हैं दसकी एक असंदिग्ध व्याख्या निकल

  आती है,  अर्थात् गोतम विप्र ही हैं और कोई नहीं, वैसे कि इसी सूक्तकी तीसरी

  ॠचामें 'तं प्रथमंदेवयन्ती:, दस्मम् आरी:' इस प्रकारकी शब्दयोजनासे यह स्वयमेव

  व्याख्यात हो जाता है कि आर्य प्रजाएं वे हैं जो 'देवयन्ती:' हैं, देवत्वको चादने-

  वाली हैं |

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 हैं । भौतिक जगत्में वह सामान्य भक्षक और उपभोक्ता है । साथ ही बह पवित्रकर्ता भी है, जब वह भक्षण करता है और उपभोग करता है तब भी वह पवित्रकर्ता है । यह वह आग है जो तैयार करती हैं और पूर्णता लाती है; साय ही यह वह अग्नि है जो सात्म्य करती है और शक्तिकी वह उष्णता है जो रूप बनाती है । यह जीवनकी उष्णता हैं और वस्तुओंमें रसको, अर्थात् उनकी तात्त्विक सत्ताके सारको और उनके आनंदके सारको उत्पन्न करती है ।

 

इसी तरह वह प्राणका भी संकल्प है, क्रियाशील जीवन-शक्ति है, और उस शक्तिके रूपमें भी वह उन्हीं व्यापारोंको करती है । भक्षण और उपभोग करती हुई, पवित्रीकरण करती हुई, तैयार करती हुई, सात्म्य करती हुई, रूप बनाती हुई वह सदा ऊपरकी तरफ उठती है और अपनी शक्तियोंको 'मरुतों', मन:शक्तियोंके रूपमें परिणत कर देती है । हमारे मनोविकार और धुंधले भावावेग इस अग्निके ज्वलनका धुआँ हैं । केवलमात्र इसीका अवलंब पाकर हमारी सब नाड़ीगत शक्तियाँ अपनी क्रिया करनेमें सुनिश्चितता पाती हैं ।

 

जहाँ वह (अग्नि) हमारी प्राणमय सत्तामें स्थित संकल्प हैं और क्रियाके द्वारा इसे (प्राणको) पवित्र करता हैं, वहाँ वह मनमें स्थित संकल्प भी है और अभीप्साके द्वारा मनको निर्मल करता है । जब वह बुद्धिके अंदर प्रविष्ट होता है तब वह अपने दिव्य जन्मस्थान और घरके समीप आ रहा होता है । वह विचारोंको फलसाधक शक्तिकी तरफ ले जाता हैं; ह सक्रिय शक्तियोंको प्रकाशकी तरफ ले जाता हैं ।

 

यद्यपि वह सर्वत्र ही जन्मा हुआ है और सभी वस्तुओंमें निवास करता है तथापि उसका दिव्य जन्मस्थान और घर हैं सत्य, असीमता, वह बृहत् विराट्-प्रज्ञा जहाँ ज्ञान और शक्ति आकर एक हो जाते हैं । कारण, वहाँ समस्त संकल्प वस्तुओंके सत्यके साथ समस्वर होकर रहता है और इसलिये फल-साधक होता है; समस्त विचार उस प्रज्ञाका अंश होकर रहता है जो कि दिव्य नियम है, और इसलिये वह दिव्य क्रियाको पूर्णरूपेण नियमित करने-वाला होता है । 'अग्नि' चरितार्थता प्राप्त करके अपने स्वकीय घरमें--सत्यमें, तमें, बृहत्में-शक्तिमान् हो जाता है । वहीं पहूँचानेके लिये वह (अग्नि) मनुष्यजातिकी अभीप्साको, आर्यकी आत्माको, विराट् यज्ञके मूर्धाको ऊपरकी तरफ ले जा रहा है ।

 

जब एक महान् अतिक्रमण किये जानेकी,  मनसे अतिमानसमें संक्रान्तिकी, जो बुद्धि अबतक मनोमय सत्ताकी नेत्री बनो हुई थी उसके एक दिव्य

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प्रकाशमें रूपांतरित हो जानेकी प्रथम संभावना होने लगी उस क्षणमें,-जब वैदिक योगके बीचमें आनेवाला ऐसा अति गंभीर और कठिन समय आया उस समय ऋषि गोतम राहूगण अपने अंदर अन्तःप्रेरित शब्द लाना चाह रहा हैं । वह शब्द उसे तथा अन्योंको उस शक्तिके अनुभव करनेमें सहायता देगा जो अवश्यमेव उस संक्रान्तिको कर देगी और प्रकाशमान समृद्धिकी वह अवस्था ला देगी जिससे वह रूपांतर-कार्य प्रारंभ हो सकेगा ।

 

आध्यात्मिक दृष्टिसे देखें तो वैदिक यज्ञ उस विराट् तथा व्यक्तिगत क्रियाका प्रतीक है जो स्वतः-सचेतन, प्रकाशमान तथा अपने लक्ष्यसे अभिज्ञ हो गयी है । विश्वकी सारी प्रक्रिया अपने स्वरूपसे ही एक यज्ञ है, वह स्वेच्छापूर्वक किया जाय या अनिच्छापूर्वक । आत्मोत्सर्ग करनेसे आत्म-पूर्णताकी प्राप्ति, त्याग करनेसे वृद्धि, यह एक विश्वव्यापक नियम है । यदि कोई आत्मोत्सर्ग करनेसे इन्हार करता है, तो भी वह विश्वकी शक्तियोंका ग्रास तो बनता ही है । ''खानेवाला (भोक्ता) स्वयं भी खाया जाता है'' 1 यह एक अर्थपूर्ण और भीषण उक्ति है जिसमें उपनिषद्ने विश्वके इस रूपको संगृहीत कर दिया है, और एक दूसरे संदर्भमें मनुष्योंको देवोंके पशु2 कहा गया है । जब इस नियमको पहचान लिया जाता है और स्वेच्छापूर्वक स्वीकार कर लिया जाता है तभी-केवल तभी-इस मृत्युके राज्यको पार किया जा सकता है तथा यज्ञ (त्याग) के कर्मो द्वारा अमरता संभव बनायी तथा प्राप्त की जा सकती है । इसके लिये मानवीय जीवनकी सभी शक्तियाँ तथा संभाव्यताएँ, यज्ञके प्रतीक-रूपमें, विश्वके दिव्य जीवनके प्रति उत्सर्ग कर दी जाती हैं ।

 

ज्ञान, बल और आनंद ये दिव्य जीवनकी तीन शक्तियाँ हैं; विचार  और विचार-जनित रचनाएँ, संकल्प और संकल्प-जनित कार्य, प्रेम और प्रेम-जनित समस्वरताएँ ये उनके अनुरूप तीन मानवीय क्रियाएँ हैं जिन्हें ऊपर उठाकर दिव्य स्तरतक पहुँचाया जाना हैं । सच और झूठ, प्रकाश और अंधकार, वैचारिक उचितता और अनुचितताके द्वंद्व ज्ञानकी गड़बड़ें हैं जो अहंकार-रचित विभागसे पैदा होती हैं; अहंकार-जनित प्रेम और घृणा, सुख और दु:ख, हर्ष और पीड़ाके द्वंद्व प्रेमकी गड़बड़ें हैं, आनंदके विकार हैं; सबलता और निर्बलता, पाप और पुण्य, कर्मण्य ता और अकर्मण्यताके द्वंद्व संकल्पकी गड़बड़ें हैं जो दिव्य बलको बिखेरनेवाली हैं ।

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 1. अहमन्नम्, अन्नमदन्तमद्मि । तै० उप० 3.10.6

 2. पशुरेद स देवानाम् । वृ० उप० 1.4.10

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और ये सब गड़वड़ें इसलिये उठती हैं, और ययाँतक कि हमारी क्रियाकी आवश्यक अंग बन जाती हैं, क्योंकि दिव्य जीवनकी ये त्रिविध शक्तियाँ ( ज्ञान, बल, प्रेम) विभक्त करनेवाले अज्ञानके कारण एक दूसरेसे अलग हो जाती हैं--ज्ञान तो बलसे प्रेम दूसरे दोनों ( बल और ज्ञान) से । इस अज्ञानको, प्रबल विश्वव्यापक मिथ्यात्वको ही हटाया जाना है । अतः सत्यके द्वारा ही वास्तविक समस्वरता, अखंड सौभग्यका, दिव्य आनंदके अंदर प्रेमकी अंतिम कृतार्थता या परिपूर्णताका मार्ग खुल सकता है । इसलिये जब मनुष्यके अंदरका संकल्प दिव्य तथा सत्यसे अभिव्याप्त, अमृत: ॠतावा, हो जाता है केवल तभी वह पूर्णता, जिसकी तरफ हम 'अग्रसर हो रहे हैं, मानव-जातिके अंदर सिद्ध की जा सकती है ।

 

तो 'अग्नि वह देय है जिसे मर्त्यके अंदर सचेतन होना है । अन्तःप्रेरित शब्द को उसे ही अभिव्यक्त करना है, इस द्वारवाले प्रासाद (मंदिर) में और इस यज्ञकी वेदीपर सुप्रतिष्ठित करना हैं ।

 

''किस प्रकार हम अग्निको हवि दें ?'' ऋषि पूछता है । देनेके लिये यहाँ जो शब्द 'दाशेम' प्रयुक्त हुआ है उसका शाब्दिक अर्थ हैं 'बांटें'; इसका एक गूढ़ संबंध विवेकके अर्थमें आनेवाली 'दश्' धातुसे भी है । वस्तुत: यज्ञ एक व्यवस्थापन या वितरण है, मानवीय क्रियाओं और सुखोपभोगोंको उन विभिन्न विराट् शक्तियोंके लिये बांटना है, जिनके क्षेत्रमें वे (मानवीय क्रियाएँ और सुखोपभोग) उनके अधिकारसे ही आते हैं । इसी लिये वेदमंत्रोंमें बार-बार देवोंके भागका उल्लेख आया हैं । यज्ञकर्ताके सामने समस्या यह होती है कि वह अपने कर्मोंकी उचित व्यवस्था कैसे करे, उनका उचित विभाग कैसे करे, क्योंकि यज्ञ हमेशा नियम तथा दिव्य विधान (ऋतु; बादके साहित्यमें जिसे 'विधि' नाम दिया गया है) के अनुसार ही होना चाहिये । मर्त्यके अंदर उच्च नियम तथा सत्यका शासन हो जाय इसके लिये सबसे महत्त्वपूर्ण तैयारी है उचित व्यवस्था करनेका संकल्प होना ।

 

इस समस्याका हल निर्भर करता है उचित उपलब्घिपर और उचित उपलब्घि प्रारम्भ होती है सच्चे आलोक देनेवाले शब्दसे, उस अन्त:-प्रेरित विचारकी अभिव्यक्तिसे जो (विचार) द्रष्टाके पास 'बृहत्'से आता है । इसलिये आगे ॠषि पूछता हैं, ''कौन-सा शब्द अग्निके प्रति उच्चारित किया जाता है ?''  कौन-सा स्तुत्यात्मक शब्द, कौन-सा उपलब्धिकारक शब्द ? दो शर्तें पूरी होनी आवश्यक हैं । पहली यह कि वह शब्द अन्य दिव्य शक्तियोंसे स्वीकृत होना चाहिये, अर्थात्, ह इस प्रकारका होना चाहिये कि उस अनुभूतिकी संभाव्यताको खोल देता हो या उस अनुभूतिके प्रकाशकों

 

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अपने अंदर रखता हो जिसके द्वारा दिव्य कार्यकर्ता अर्थात् देव अपने-अपने व्यापारोंको मानवीयताकी बहि:स्थ चेतनाके अंदर अभिव्यक्त करनेके लिये तथा वहाँ अपने उन व्यापारोंमें खुले तौरपर लगे रहनेके लिये प्रेरित किये जा सकें । और दूसरी यह कि वह (शब्द) 'अग्नि'के, देदीप्यमान ज्वालाके इस देवताके, द्विविध स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला होना चाहिये । 'भाम'के दोनों अर्थ हैं, ज्ञानका प्रकाश और कर्मकी ज्वाला । 'अग्नि' एक ज्योति भी है और एक शक्ति भी ।

 

शब्द आता है । यो मर्त्येषु अमृत: ऋताथा । 'अग्नि' विशेष रूपसे मर्योंमें अमर है । अग्निके द्वारा ही असीमताके अन्य प्रकाशमान पुत्र परमदेवके उस आविर्भाव और आत्म-विस्तार (देववीति, देवताति) को सिद्ध करनेमें समर्थ होते हैं जो विराट् तथा मानवीय यज्ञका उद्देश्य भी हैं और उसको पद्धति भी हैं । क्योंकि 'अग्नि' है वह दिव्य संकल्प जो सदा सब वस्तुओंमें उपस्थित है, सदा विनाश कर रहा और रच रहा है, सदा निर्माण कर रहा और पूर्ण कर रहा है, विश्वकी जटिल प्रगतिको सदा सहारा दे रहा है । यही है जो सब मृत्यु और परिवर्तनके बीच स्थिर बना रहता है । यह शाश्स्वनतिक तौरपर और अविच्छेद्य रूपमें सत्य-युक्त है । प्रकृतिके अंतिम धुंधलेपनमें, भौतिकताकी निम्नतम प्रज्ञाशून्यतामें, यह संकल्प ही एक छिपा हुआ ज्ञान है तथा यह इन सब अंधकारपूर्ण गतियोंको, यंत्रचालितकी तरह, दिव्य नियमके अनुसार चलनेके लिये तथा उनकी प्रकृतिका जो सत्य है उसका अनुवर्तन करनेके लिये बाध्य करता हैं । यहीं है जो बीजके अनुसार वृक्षको उगाता है और प्रत्येक कर्मको उचित फलसे युक्त करता है । मनुष्यके अज्ञानके अन्धकारमें,--जो भौतिक प्रकृतिके अन्धकारकी अपेक्षा कम है तो भी उससे अधिक बड़ा है,--यह दिव्य संकल्प ही शासन करता है और पथप्रदर्शन करता हैं, उसकी अंधताके अभिप्रायको तथा उसकी पथभ्रष्टताके उद्देश्यको जानता है और उसके अंदर विराट् मिथ्यात्वकी जो कुटिल क्रियाएँ हो रही हैं उनमेंसे विराट् सत्यकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्तिको विकसित करता जाता है । भास्वर देवोंमें अकेला वही बडी चमकके साथ प्रज्वलित होता है और रात्रिके अंधकारमें भी वैसे ही पूर्ण आलोक (दर्शनशक्ति) से युक्त रहता है, जैसे कि दिनकी जगमगाहटोंमें । अन्य देव हैं 'उषर्दुष:', उषाके साथ जागनेवाले ।

 

इसलिये वह 'होता' (हवि देनेवाला ऋत्वि्) है, यज्ञके लिये सबलतम या सबसे अधिक योग्य हैं, वह जो सर्वशक्तिमान् होता हुआ सर्वदा सत्यके नियमका अनुसरण करता है । हमें स्मरण रखना चाहिये कि 'हव्य'

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हमेशा 'कर्म'के अर्थको देता हैं तथा मन या शरीरका प्रत्येक कर्म यह समझा गया है कि वह विराट् सत्ता और विराट् इच्छाके अंदर अपने प्रचुर ऐश्वर्यमेंसे उत्सर्ग करना हैं । अग्नि, दिव्य संकल्प, ह है जो हमारे कर्मोंमें हमारे मानवीय संकल्पके पीछे खड़ा रहता हैं । जब हम सचेतन होकर हवि देते हैं तब बह सामने आ जाता है; यह वह ऋत्विज् है जो सम्मुख निहित (पुरोहित) है, हविका पथप्रदर्शन करता है और इसकी फलोत्पादकताका निर्णायक होता है ।

 

इस स्वत:परिचालित सत्य द्वारा, इस ज्ञान द्वारा जो विश्वमें एक निभ्रांन्त संकल्पके रूपमें कार्य कर रहा है, वह मर्त्योंके अंदर देवोंको रच देता है । अग्नि मृत्युसे परिवेष्टित शरीरके अंदर देवत्वकी संभाव्यताओंको आविर्भूत कर देता है; 'अग्नि' उन (संभाव्यताओं) को समर्थ वास्तविक रूप तथा परिपूर्ति (सिद्धि) प्राप्त करा देता है । वह हमारे अंदर अमर देवोंके जाज्वल्यमान रूप रच देता है 1 (मंत्र 1)

 

यह कार्य वह इस रूपमें करता हैं कि वह एक विराट् शक्ति हैं जो विद्रोह करनेवाली मानवीय सामग्रीपर क्रिया करती है, तब भी क्रिया करती है जब कि हम अपने अज्ञानमें ग्रस्त होकर ऊर्ध्वमुख अन्तःप्रेरणाका प्रतिरोध करते आते हैं और, अपने कर्मोको अहंकारपूर्ण जीवनके प्रति समर्पित करनेके अभ्यस्त होनेके कारण, अबतक भी दिव्य समर्पणको करनेके लिये तैयार नहीं होते या अभीतक कर नहीं सकते । पर अग्नि स्वयं हमारे अंदर विरचित हों जाय यह उसी अनुपातमें होता है जिस अनुपातमें हम अपने अहंभावका दमन करना सीखते हैं और यह सीखते हैं कि प्रत्येक कार्यमें इस अहंभावको विराट् सत्ताके आगे झुकनेके लिये बाध्य करें और कार्यकी छोटी-से-छोटी क्रियाओंमें सचेतन होकर इसे दिव्य संकल्पके सिद्ध करनेमें लगावें । इस प्रकार दिव्य संकल्प मानवीय मनके अंदर साक्षात् उपस्थित तथा सचेतन हो जाता है और इसे दिव्य ज्ञान से आलोकित कर देता है । इसी प्रकार वह अवस्था प्राप्त की जाती है जिसमें यह कहा जा सकता है कि मनुष्यने अपने परिश्रम द्वारा महान् देवोंको रचा ।

 

'रचने'के लिये संसकृतका जो शब्द यहाँ प्रयुक्त हुआ है वह है ' कृणुध्वम्' 'कृणुध्यम्'से पहले जो 'आ' उपसर्ग लगा है वह इस विचारको देता है कि बाहरकी किसी वस्तुको अपनेपर खींच लाना है और अपनी स्वकीय चेतनाके अंदर लाकर उसे घड़ना या विरचित करना है । 'आ-कृ' अपने प्रतिलोम 'आ-भू' प्रयोगके अनुरूप है; 'आ-भू' प्रयुक्त होता हैं उस अवस्थाको बतानेके लिये जब कि देव अमरताके संस्पर्शके साथ मर्त्यके पास

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आते हैं और, देवताके दिव्य रूपके मानवताके रूपपर पड़नेसे, वे उस (मर्त्य) के अंदर ''होते हैं'', ' 'बनते हैं'', आकृति पाते हैं । विराट् शक्तियाँ विश्वमें क्रिया करती हैं और वहाँ विद्यमान रहती हैं; मनुष्य उनको अपनेपर लेता हैं, अपनी स्वकीय चेतनामें उनकी एक प्रतिमा बनाता है और उस प्रतिमाको उस जीवन तथा शक्तिसे समन्वित करता है, जो जीवन और शक्ति सर्वोच्च सत्ताने अपने निजके दिव्य रूपोंके अंदर तथा विश्वशक्तियोंके अंदर फूँके हैं ।1

 

जब इस प्रकार 'अग्नि' मर्त्यके अंदर वैसे ही उपस्थित तथा सचेतन हो जाता है जैसे धरमें 'घरका मालिक' 2 रहता है, तब वह अपनी दिव्यताके वास्तविक स्वरूपमें प्रकट होता है । जब हम अंधकाराच्छन्न होते हैं और सत्य व नियमसे अभिद्रोह कर रहे होते हैं तब हमारी प्रगति एक अज्ञानसे दूसरे अज्ञानमें ठोकरें खाती हुई प्रतीत होती है और दुःख तथा विध्नसे भरपूर होती है | सत्यके प्रति सतत समर्पणों द्वारा, नमोभि:, हम अपने अंदर दिव्य संकल्पकी उस प्रतिमाको रचते हैं जो उपर्युक्त अवस्थाके विपरीत शांतिसे परिपूर्ण होती है, क्योंकि बह निश्चित रूपमें सत्य व नियमसे युक्त होती है । आत्माकी समता3 जो विश्वव्यापी प्रज्ञाके प्रति समर्पण द्वारा रचित होती है, हमें एक निरतिशय शांति और निर्वृति प्रदान करती है । और क्योंकि यह प्रज्ञा सत्यके सरल मार्गपर रखे गये हमारे सब पगोंकी पथप्रदर्शक होती है, इसलिये उसकी सहायतासे हम सब स्खलनों (दुरितानि) से पार होजाते हैं ।

 

इसके अतिरिक्त, जब अग्नि हमारी मानव-सत्ताके अंदर सचेतन हो जाता है तो उसके साथ यह भी होता है कि हमारे अंदर जो देवोंकी रचना हो रही हैं वह एक वास्तविक प्रकट वस्तु बन जाती है, परदेके पीछे हो रही वस्तु नहीं रहती । हमारे अंदरका संकल्प वर्धित होते हुए देवत्वके प्रति सचेतन हो जाता है, इस अभिवृद्धिकी प्रक्रियाके प्रति जागृत हों जाता है, इस की दिशाओंको अनुभव करने लगता है । मानवीय कर्म तब बुद्धिपूर्वक संचालित और विश्वशक्तियोंके प्रति अर्पित होकर पहलेकी तरह कोई यंत्रवत् परिचालित, अनिच्छापूर्वक दी गयी था अपूर्ण हवि नहीं

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  1. हिन्दू प्रतिमापूजाका यही वास्तविक आशय और वही वास्तविक कलना है, जिसमें इस

   प्रकार महान् वैदिक प्रतीकोंको भोतिक रूप दे दिया गया है ।

  2. गृहपति; और 'विश्वरपति' मी, अर्थात् प्राणीमें अवस्थित स्वामी या राजा ।

  3. गीताप्रोक्त 'समता'

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रहता; विचारशील और निरीक्षणशील (द्रष्टा) मन भी तब भाग लेने लगता है और उस यज्ञिय संकल्पका उपकरण बन जाता हैं । (मंत्र 2)

 

अग्नि सचेतन सत्ताकी शक्ति है, जिसे हम 'संकल्प' नामसे पुकारते हैं, यह संकल्प मन तथा शरीरके व्यापारोंके पीछे क्रिया करता है । अग्नि हमारें अंदर रहनेवाला वह सबल (मर्यः, मजबूत, पुरुष) देव है जो अपने बलको सब आक्रामक शक्तियोंके विरोधमें लगाता हैं, जड़ताको रोकता हैं, हृदयकी और शक्तिकी प्रत्येक असमर्थताको दूर करता हैं, पुरुषत्वकी सब न्यूनताओंको निकाल बाहर करता है । अग्नि उस वस्तुको वास्तविक रूप दे देता है, सिद्ध कर देता है जो उसके बिना एक असिद्ध अभीप्सा या निष्फल विचार ही बनी रहती । वह योगका कर्ता (साधु) है; अपनी भट्ठीपर काम करता हुआ वह दिव्य शिल्पी हथौड़ेकी चोटें लगा-लगाकर हमारी पूर्णताको गढ़ता है । यहाँ उसके विषयमें कहा गया है कि वह परम सत्ताका रथी बनता है । वह 'परम' और 'अद्भुत' जो गति करता हैं और अपने-आपको ''अन्यकी चेतनाके अंदर'' 1 सिद्ध करता है,--यहाँ वही शब्द 'अद्भुत' प्रयुक्त हुआ है, जो इन्द्र और अगस्त्यके संवादमें आ चुका है,--क्रियाकी लगामोंको पकड़नेवाली रथीरूप इस शक्ति (अग्नि) से ही अपनी उस गतिको संचालित करता है । मित्र भी, जो प्रेम तथा प्रकाशका देवता है, एक ऐसा ही रथी है । क्योंकि प्रेम जब प्रकाशमय हो जाता है तो वह समस्वरताको पूर्ण (सिद्ध) कर देता है जो दिव्य क्रियाका लक्ष्य है । पर साथमें संकल्प तथा प्रकाशके इस देवता (अग्नि) की शक्ति भी अपेक्षित है । शक्ति और प्रेम जब मिल जाते हैं और दोनों ज्ञानकी ज्योतिसे आलोकित होते हैं तब वे जगत्में परम देवको पूर्ण (सिद्ध) कर देते हैं ।

 

संकल्प सर्वप्रथम आवश्यक वस्तु है, मुख्य वास्तविक रूप देनेवाली शक्ति है । इसलिये जब मर्त्यजाति सचेतन होकर महान् लक्ष्यकी तरफ मुँह मोड़ती है और, अपनी समृद्धता-प्राप्त शक्तियोंको द्यौके पुत्रोंके लिये समर्पित करती हुई, अपने अंदर दिव्यताको रचनेका यत्न करती है तब वह द्यौके पुत्रोंमें प्रथम और मुख्य अग्निके प्रति ही सिद्धिदायक विचारको उत्थापित करती है, सर्जनकारी शब्दको निर्मित करती है । क्योंकि आर्य वही हैं जो इस कर्मको करते हैं तथा इस प्रयत्नको स्वीकार करते हैं--कर्म जो सब क्रर्मों

 बृहत्तम है, प्रयत्न जो सब प्रयत्नोंमें महत्तम है,-

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1. देखो, ऋग्वेद 1.170 जिसकी व्याख्या इस ग्रन्थके प्रथम अध्यायमें आ चुकी है

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और अग्नि है वह शक्ति जो दिव्य क्रियाका आलिंगन करती है और उस क्रिया द्वारा कार्यको परिपूर्ण करती है । वह क्या आर्य हैं जो दिव्य संकल्पसे, अग्निसे रहित है, उस अग्नि ( संकल्प) से जो श्रम तथा युद्धको स्वीकार करता है, कार्य करता और जीतता है, कष्ट सहन करता और विजय प्राप्त करता है ? (मंत्र 3)

 

इसलिये यह संकल्प ही है जो उन सब शक्तियोंको उच्छिन्न कर डालता है जो प्रयत्नको विनष्ट करनेमें लगी होती हैं, यही है जो सब दिव्य शक्तियोंमें सबलतम है, जिसमें परम पुरुषने अपने-आपको प्रतिमूर्त कर रखा है, इसलिये इसे चाहिये कि यह इन मनुष्यरूपी पात्रोंको अपनी साक्षात् उपस्थितिसे कृतार्थ करे । वहाँ यह मनको यज्ञके उपकरणके तौरपर प्रयुक्त करेगा और अपनी उपस्थितिमात्रसे उन अन्तःप्रेरित सिद्धि-दायक शब्दोंको अभिव्यक्त कर देगा जो मानो ऐसे रथ हैं जो देवोंके संचारके लिये रचे गये हैं, और ध्यानशील विचारको यह आलोकित कर देनेवाली वह समझ प्रदान करेगा जो दिव्य शक्तियोंके रूपोंको इसके लिये अनुमति देगी कि वे हमारी जागृत चेतनाके अंदर अपनी बाह्य रूप-रेखा बना लें ।

 

उसके बाद वे अन्य शक्तिशाली देव जो अपने साथ उच्चतर जीवनके ऐश्वर्य लाते हैं,--इन्द्र और अश्विनौ, उषा और सूर्य, वरुण और मित्र और अर्यमा,-अपने उस रचनात्मक विस्तारके साथ मनुष्यके अंदर अपने तेजस्वितम बलोंको धारण कर सकते हैं । ये अपने ऐश्वर्योंको, हमारी सत्ताके गुह्य स्थानोंसे बरसाकर, हमारे अंदर इस प्रकार रच दें कि वे (ऐश्वर्य) हमारे दिनकी तरह प्रकाशमान प्रदेशोंमें उपयोगमें लाये जा सकें और उनकी प्रेरणाएँ दिव्यीकारक विचारको ऊपर दिव्य मनमें तबतक संचालित करती जायँ जबतक कि वह (विचार) अपने-आपको उच्च दीप्तियोंमें रूपांतरित न कर दे । (मंत्र 4)

 

इस पाँचवें मंत्रके साथ सूक्त समाप्त होता है । इस प्रकार, अन्त:प्रेरित शब्दोंमें, दिव्य संकल्प, अग्नि, गोतमोंके पवित्र गानों द्वारा स्तुत किया गया है । ऋषि अपने नाम और अपने वंशके नामको एक प्रतीकात्मक शब्दके तौरपर प्रयुक्त कर रहा है;  इसमें .''प्रकाशमान''के अर्थ में आने-वाला वैदिक 'गो' शब्द विद्यमान हैं, और 'गोतम'का अर्थ है ''पूर्णतः प्रकाश-युक्त" । जो प्रकाशपूर्ण प्रज्ञाके प्रचुर ऐश्वर्यको धारण कर लेते हैं (गोतम बन जाते हैं) उन्हींके द्वारा दिव्य सत्यका स्वामी (अग्नि) समग्र रूपसे प्राप्त किया जा सकता है तथा इस लोकमें, जो एक अपेक्षाकृत क्षुद्र रश्मिका

 

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लोक हैं, स्तुत और सुस्थित किया जा सकता है,-गोतमेभिर्ऋ्तावा । और जिनके मन शुद्ध हैं, निर्मल और खुले हैं जो 'विप्र' हैं उन्हींमें उन महान् जन्मोंका उन जात लोकोंका सत्य ज्ञान उदित हो सकता है, जो इस भौतिक लोकके पीछे छिपे हैं और जिनमेंसे यह (भौतिक लोक) अपने बलोंको प्राप्त करता और धारण करता है--विप्रेभिर्जातवेदा: ।

 

अग्नि 'जातवेदस्' है, जातको अर्थात् जन्मों, जात (उत्पन्न) लोकोंको जाननेवाला है । यह पाँचों लोकों1 को पूर्ण रूपसे जानता हैं, अपनी चेतनामें वह इस सीमित और पराश्रित भौतिक समस्वरतातक ही सीमित नहीं है । यह तीन उच्चतम अवस्थाओं2में, रहस्यमयी गौं3के ऊधस्में, चार सींगोंवाले बैल4फे विपुल ऐश्वर्यमें भी प्रवेश रखता है । उस विपुल ऐश्वर्यमेंसे वह इन 'आर्य' अन्वेषकोंके अंदर प्रकाशको पोषण प्रदान करेगा, उनकी दिव्य शक्तियोंको प्रचुरताको परिवर्धित करेगा । अपने प्रकाशमय बोधोंकी उस परिपूर्णता और प्रचुरताके द्वारा यह विचारसे विचारको, शब्दसे शब्दको जोड़ता जायगा, जबतक कि मानवीय प्रज्ञा इतनी समृद्ध और समस्वर न हो जायगी कि वह सहार सके और दिव्य विचार बन जाय । (मंत्र 5)

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1. वे लोभ जिनमें कमशः भौतिक तत्त्व, प्राण-शक्ति, , सत्य ओर आनन्द सारभूत

 शक्तियां हैं । दे क्रम से भुवः, स्व:, महस् और 'जन या मयस्'  कहे जाते हैं |

2. दिव्यत्ता,चैतन्य, आनन्द,--सच्चिदानन्द ।

3. अदिति असीम चेतना, लोकोंकी माता ।

4. दिव्य पुरुष, सच्चिदानन्द; तीन उच्चतम अवस्थाएं ओर चौथा सत्य--ये उसके चार

  सींग हैं |

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